चन्द्र सिंह भण्डारी “गढ़वाली” – पेशावर कांड के नायक
जन्म- 25 दिसम्बर, 1891
जन्मस्थान – मासी, पौड़ीगढ़वाल
मृत्यु – 1 अक्टूबर, 1979
चन्द्र सिंह भंडारी ‘गढ़वाली’ (Veer Chandra Singh Garhwali) का जन्म 25 दिसम्बर 1891 में गढ़वाल के मासी ग्राम में हुआ था। चन्द्र सिंह के पिता का नाम जलौथ सिंह भंडारी था। 3 सितम्बर 1914 को चन्द्र सिंह सेना में भर्ती होने के लिये लैंसडौन पहुंचे और सेना में भर्ती हो गये। वह प्रथम विश्वयुद्ध का समय था। इसलिए 1 अगस्त 1915 को चन्द्रसिंह को अन्य गढ़वाली सैनिकों के साथ मित्र राष्ट्रों की ओर से यूरोप और मध्य पूर्वी क्षेत्र में भेज दिया। जहाँ से वे 1 फरवरी 1916 को वापस लैंसडौन आ गये। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ही 1917 में चन्द्रसिंह ने अंग्रेजों की ओर से मेसोपोटामिया के युद्ध में भाग लिया। जिसमें अंग्रेजों की जीत हुई थी। चन्द्र सिंह ने 1918 में बगदाद की लड़ाई में भी हिस्सा लिया था।
प्रथम विश्व युद्ध समाप्त हो जाने के बाद अंग्रेजो द्वारा कई सैनिकों को निकालना शुरू कर दिया और जिन्हें युद्ध के समय तरक्की दी गयी थी उनके पदों को भी कम कर दिया गया। इसमें चन्द्रसिंह भी थे। जिस कारण इन्होंने सेना को छोड़ने का मन बना लिया। पर उच्च अधिकारियों द्वारा इन्हें समझाया गया कि इनकी तरक्की का खयाल रखा जायेगा और इन्हें कुछ समय का अवकाश भी दे दिया। इसी दौरान चन्द्रसिंह महात्मा गांधी के सम्पर्क में आये।
कुछ समय पश्चात इन्हें इनकी बटैलियन समेत 1920 में बजीरिस्तान भेजा गया। सन् 1920 से 1922 तक चंद्रसिंह युद्ध मोर्चे पर रहे और सन् 1922 में जब वे लैंसडौन लौटे तो उन्हें फिर हवलदार मेजर बना दिया गया। लैंसडौन में रहते वे एक कट्टर आर्यसमाज श्री टेकचंद वर्मा के संपर्क में आए और उनसे तथा आर्यसमाज के सिद्धांतों से प्रभावित होकर वे भी पक्के आर्यसमाजी बन गए। और इनके अंदर स्वदेश प्रेम का जज़्बा पैदा हो गया। पर अंग्रेजों को यह रास नहीं आया और उन्होंने इन्हें खैबर दर्रे के पास भेज दिया।
उस समय पेशावर में स्वतंत्रता संग्राम की लौ पूरे जोरशोर के साथ जली हुई थी। और अंग्रेज इसे कुचलने की पूरी कोशिश कर रहे थे। इसी काम के लिये 1930 में इनकी बटालियन को पेशावर जाने का हुक्म दिया गया, 23 अप्रैल, 1930 को पेशावर में किस्साखानी बाजार में खान अब्दुल गफ्फार खान के लालकुर्ती खुदाई खिदमतगारों की एक आम सभा हो रही थी। अंग्रेज आजादी के इन दीवानों को तितर-बितर करना चाहते थे। कैप्टेन रैकेट 72 गढ़वाली सिपाहियों को लेकर जलसे वाली जगह पहुंचे और निहत्थे पठानों पर गोली चलाने का हुक्म दिया। चन्द्र सिंह भण्डारी ने कैप्टेन रिकेट से कहा कि “हम निहत्थों पर गोली नहीं चलाते” इसके बाद गोरे सिपाहियों से गोली चलवाई गई। चन्द्र सिंह और गढ़वाली सिपाहियों का यह मानवतावादी साहस अंग्रेजी हुकूमत की खुली अवहेलना और राजद्रोह था। उनकी पूरी पल्टन एबटाबाद (पेशावर) में नजरबंद कर दी गई, उनपर राजद्रोह का अभियोग चलाया गया। हवलदार चन्द्र सिंह भण्डारी को मृत्यु दण्ड की जगह आजीवन कारावास की सजा दी गई, 16 लोगों को लम्बी सजायें हुई, 39 लोगों को कोर्ट मार्शल के द्वारा नौकरी से निकाल दिया गया। 7 लोगों को बर्खास्त कर दिया गया, इन सभी का संचित वेतन जब्त कर दिया गया। बैरिस्टर मुकुन्दीलाल ने गढ़वालियों की ओर से मुकदमे की पैरवी की थी। चन्द्र सिंह गढ़्वाली तत्काल ऎबटाबाद जेल भेज दिया गया, 26 सितम्बर, 1941 को 11 साल, 3 महीन और 16 दिन जेल में बिताने के बाद वे रिहा हुये। लेकिन उन्हें गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। जेल से रिहा होने के बाद कुछ समय तक वे आनन्द भवन, इलाहाबाद रहने के बाद 1942 में अपने बच्चों के साथ वर्धा आश्रम में रहे। भारत छोड़ो आन्दोलन में उत्साही नवयुवकों ने इलाहाबाद में उन्हें अपना कमाण्डर इन चीफ नियुक्त किया। डा० कुशलानन्द गैरोला को डिक्टेटर बनाया गया, इसी दौरान उन्हें फिर से गिरफ्तार कर लिया गया, कई जेलों में कठोर यातनायें दी गई, 6 अक्टूबर, 1942 को उन्हें सात साल की सजा हुई। 1945 में ही उन्हें जेल से छोड़ दिया गया, लेकिन फिर से गढ़वाल प्रवेश पर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। फिर अपने बच्चों के साथ हल्द्वानी आ गये।
22 दिसम्बर 1946 में कम्युनिस्टों के सहयोग के कारण चन्द्रसिंह फिर से गढ़वाल में प्रवेश कर सके। 1957 में इन्होंने कम्युनिस्ट के उम्मीदवार के रूप में चुनाव लड़ा पर उसमें इन्हें सफलता नहीं मिली। 1 अक्टूबर 1979 को चन्द्रसिंह गढ़वाली का लम्बी बिमारी के बाद देहान्त हो गया। 1994 में भारत सरकार द्वारा उनके सम्मान में एक डाक टिकट भी जारी किया गया। तथा कई सड़कों के नाम भी इनके नाम पर रखे गये।